प्रकृति हो वातज तथा वह बुद्धि का भी तेज हो।
तेज गन्ध सही न जाये हो रहा निस्तेज हो।।
चाहे चढ़ा ज्वर हो अधिक अन्दर बताता शीत हो।
खुलने न देता देह क्योंकि शीत से भयभीत हो।।
ईर्षालु क्रोधी और जिदी बन सभी को कोसता।
आत्म-घात करे वही दिन रात है वह सोचता।।
मल-त्याग के ही फिक्र में प्रतिक्षण बना बेचैन हो।
पाचन विकार बना रहे तब ”नक्स” से ही चैन हो।।
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